जनता के सेवकों को राजा मानने की मानसिकता से बाहर निकलिए…

पिछले कई सालों से हम सुनते आ रहे हैं कि राजनीति गंदगी से भरी हुई है। आज सवाल यह पैदा होता है कि गंदगी कहा पैदा होती है? स्वाभाविक है, जहाँ पर सफाई का ध्यान न रखा जाये वहाँ पर गंदगी जन्म लेती है। इस देश के राजनेता सत्ता के नशे में चकचूर रहते हैं। ऐसा कहने के पीछे कारण यह है कि ज्यादातर लोग राजनीति में केवल यह सोचने के लिए जाते हैं कि वे सार्वजनिक सेवा के नाम पर मेवा खा सके। इस तरह की समझ के पीछे भारतीयों की मानसिकता को स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है।

चाहे वह रिश्वतखोरी हो या दहेज, देने वाला उतना ही दोषी है जितना कि लेने वाला। छोटे-बड़े उपहार देने की परंपरा धीरे-धीरे रिश्वत की प्रणाली बन जाती है। लोग उपहार और रिश्वत इसलिए देते है कि अपने काम आसानी से हो जाय। रिश्वत की यह प्रणाली हमारे पारिवारिक स्तर से शुरू होती है। सबसे बड़ा उदाहरण एक छोटे बच्चे को कुछ करने या ना करने के लिये दिया गया प्रलोभन है। “यदि आप गाना गाओगे तो मैं आपको चॉकलेट दूंगा”, ” आप अच्छे अंक लाएंगे तो मैं आपको साइकिल लाकर दूंगा”, ” यदि आप शरारत नहीं करोगे तो मैं आपको बाहर ले जाऊंगा।” ऐसे सभी कथन क्या संकेत देते हैं? इस तरह के प्रलोभन बच्चों को बचपन से ही बिगाड़ देते हैं। बाद में, जब बच्चा कुछ लिये बिना काम करने के लिए तैयार नहीं होता है, तो वही माता-पिता रोते हैं – शिकायत करते हैं कि बच्चा बहुत बिगड़ गया है।

लोग अपने स्वार्थ के लिए राजनेताओं को रिश्वत देने लगते हैं।

अपना दिन चैन से गुजरे इसलिए मातापिता द्वारा जिस तरह से एक बच्चे की आदतों को बिगाडा जाता है, उसी तरह राजनेताओं को – सरकारी अफ़सरों को भी बिगाड़ा गया है।

ट्रेन का टिकट न मिले तो टीटीई को रिश्वत देना, रास्ते पर धंधा लगाने के लिए नगर निगम के अधिकारियों को रिश्वत देना, स्कूल में प्रवेश पाने के लिए संचालकों को रिश्वत देना, अपनी फाइल कम अवधि में पास हो उसके लिए सरकारी अफ़सरों को रिश्वत देना, खुद को अनुबंध प्राप्त हो उसके लिए संबंधित विभाग के मंत्री को रिश्वत देना, यह सब दूसरा कोई नहीं, हम नागरिक ही करते हैं।  यह स्पष्ट है कि लेने वाला तभी पैदा होता है जब कोई देने वाला हो।

जनता का सेवक या राजा?

एक और महत्वपूर्ण बात यह है कि भले ही हमारे यहां राजाशाही नहीं है हम राजनेताओं को – अधिकारियों को राजाओं के समान सम्मान दिया जाता है। किसी व्यक्ति का सम्मान होना स्वाभाविक है, लेकिन उसको शिर पर चड़ा देना दूसरी बात है। यहां तक ​​कि हम एक सामान्य पंचायत के अध्यक्ष को भी राजा जैसा मान देते आ रहे हैं। एक ओर हम कहते हैं कि राजनेता और सरकारी कर्मचारी जनता के सेवक हैं और दूसरी ओर हम उन्हें एक राजा का दर्जा देते हैं और उन्हें शिर-आँखों पर रखते हैं।

जब कोई नगरसेवक भी वोट मांगने आता है, तो उसके पीछे चमचों की भीड़ होती है और मानो वह स्वर्ग से उतरकर आया हो उतना सम्मान उसे दिया जाता हैं। कुछ उद्घाटन के लिए या अपने स्वयं के आयोजनों के लिए कोई राजनीतिज्ञ को बुलाकर लोग फूले नहीं समाते।

संक्षेप में कहे तो, जो व्यक्ति को इस देश में सेवक मानना चाहिये उसे लोग राजा मानते है और बाद में शिकायत करते हैं कि राजनेता सभी भ्रष्ट हैं और राजनीति बहुत गंदी है। इसकी क्या वजह हो सकती है?

गुलामी की मानसिकता अभी दूर नहीं हुई है!

देश की आजादी के 72 साल बाद भी लोगों की गुलामी की मानसिकता आज भी नहीं बदली है। देश के लोकतंत्र में लोगों की सेवा के लिए प्रतिनिधि चुने जाते हैं; लोगों पर राज करने के लिए नहीं।

लोगों की याददाश्त बहुत कम है। राजनेता इस बात का फायदा उठाते हैं। अब तक कई घोटाले सामने आए हैं, लेकिन जनता ने कुछ दिनों तक उन पर चर्चा की और फिर उन्हें भूल गई। कुछ दिनों तक अखबारों में जोरदार हलचल के बाद सब कुछ पूर्वरूप हो जाता है। नागरिकों ने जागरुक जनता के रूप में अपनी जिम्मेदारी कभी पूरी नहीं की। हो-हल्ला करने के कुछ दिनों के बाद हर कोई अपने दैनिक जीवन में वापस आने का आदी हो गया है। राष्ट्रीय नैतिक बल के अभाव में, सभी राजनेताओं को अपनी मनमानी करने की सुविधा मिल गई है। इसके अलावा , घोटाले कर सकते हैं जब राजनेताओं , जब लोग उन्हें पैसे देने के लिए तैयार कर रहे हैं। यहां यह मुद्दा फिर से सामने आता है कि राजनेताओं को पैसा देने वाले लोग राजनेता नहीं हैं; वे जनता से हैं। उदाहरण के लिए, कॉर्पोरेट्स ने राजनेताओं को रिश्वत देकर अपने लिए ऋण लिया और फिर वे ऋण नॉन परफोर्मिंग ऍसेट्स बन गए। ऐसे मामलों में, राजनेताओं जितने है उतने ही दोषी कॉर्पोरेट्स हैं। यह ठीक उसी तरह है जिस तरह अन्याय करने वाले के जितना ही दोषी अन्याय सह लेने वाला होता है।

INX मामले में पी. चिदंबरम प्रवर्तन निदेशालय और सीबीआई के दोषी हैं, उसी तरह इंद्राणी और पीटर मुखर्जी भी दोषी हैं। चिदंबरम एक राजनेता हैं और इंद्राणी और पीटर मुखर्जी आम नागरिक या कॉर्पोरेट हैं। इस प्रकार, भ्रष्टाचार के लिए कॉर्पोरेट भी जिम्मेदार हैं।

कुल मिलाकर, अब भारत के लोगों की जिम्मेदारी है कि वे अपने अधिकारों के प्रति जागरूक हों और सतर्क नागरिकों के रूप में अपने कर्तव्यों का पालन करें।

नेताओं और अभिनेताओं के पीछे पागल होकर घूमने के बजाय नागरिकों को अपने मूल्य का एहसास होना चाहिए। लोकतंत्र में जनता सबसे पहले होती है। इसलिए, उसे अपने अधिकारों और कर्तव्यों को बनाए रखने की विशेष आवश्यकता है। “यह पब्लिक है यह सब जानती है… ” यह गाना सुनने के लिए अच्छा लगता है लेकिन सब कुछ जान लेने के पश्चात उसे कुछ ठोस कदम उठाकर जागरूक नागरिक के कर्तव्यों का वहन भी करना है।

———————

देश में कानून का सख्त अमल करके जल्द से जल्द न्याय करने की आवश्यकता है

तसवीर में बाहिनी ओर से के. पी. कृष्णन, पी. चिदंबरम तथा रमेश अभिषेक

पी चिदंबरम, रमेश अभिषेक और के. पी कृष्णन को मुंबई बॉम्बे हाईकोर्ट द्वारा भेजें गयें समन्स

पी चिदंबरम, रमेश अभिषेक और के. पी. कृष्णन। विचारक्रांति के पाठक इन तीन नामों से अनजान नहीं हैं। इस देश का कोई भी नागरिक चिदंबरम के नाम से अज्ञात नहीं है, लेकिन कई पाठक इस बात से अनजान हैं कि इन तीनों व्यक्तियों पर गंभीर आरोप लगाए गए हैं। उन्हें एक बड़े आरोप का सामना करना पड़ रहा है कि उन्होंने फायनेंशियल टेक्नॉलॉजीज कंपनी समूह के खिलाफ षड्यंत्र द्वारा न सिर्फ समूह को, बल्कि देश को भी नुकसान पहुंचाया है। एक कार्पोरेट समूह, जो मेक इन इंडिया का अच्छा उदाहरण था, उस के खिलाफ साजिश रचने का भी आरोप है। इस कार्पोरेट ग्रुप का मूल्य आज 50,000 करोड़ से 60,000 करोड़ रुपये तक का हो सकता है, लेकिन उस साजिश ने इस मूल्य का घटाने का दुष्कृत्य किया है। हालांकि, अब कानून इन तीनों व्यक्तियों तक पहुंच रहा है। उन्हें अपने कृत्यों के बारे में अदालत के समक्ष जवाब देना होगा।

बॉम्बे हाईकोर्ट ने तीनों को पेश होने के लिए समन्स भेजें गयें हैं। 63 मून्स टेक्नॉलॉजीज का दावा है कि उनके खिलाफ हुई दुर्भावनापूर्ण कार्रवाई के कारण उनके शेयरधारकों को 10,000 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ है। इस दावे के साथ उसने इन तीनों व्यक्तियों से हर्जाना वसूल करने के लिए मुकदमा किया है। अदालत ने तीनों व्यक्तियों को 15 अक्टूबर, 2019 को उपस्थित रहने के लिए समन्स जारी किये हैं।

समय ही बताएगा कि इस मुकदमे का क्या परिणाम होगा, लेकिन एक बात स्पष्ट है कि कानून ने अपना वर्चस्व दिखाया है। यह विश्वास कि कानून के शिकंजे से किसी भी आरोपी बच नहीं पाता, वह इस तिकड़ी को मिले समन्स से साबित होता है। अदालत ने आरोपी को व्यक्तिगत रूप से या उसके वकील के माध्यम से या लिखित बयान के माध्यम से पेश करने का आदेश दिया है। अदालत ने कहा है कि अगर वे पेशकश नहीं करते तो उनके विरुद्ध अदालत एकपक्षी फैंसला सुनाएगी।

63 मून्स टेक्नॉलॉजीज कंपनी ने याचिका में कहा है कि उसकी सबसिडियरी कंपनी नैशनल स्पॉट एक्सचेंज लिमिटेड (एनएसईएल) में पैदा हुए भुगतान संकट के पीछे एक साजिश थी। इस तथ्य के बावजूद कि मूल कंपनी, उसकी सहायक कंपनी या उसके संस्थापकों द्वारा एक भी पाई नहीं ली गई, कथित दुर्व्यवहार के लिए पूरे समूह के खिलाफ कार्रवाई की गई।

उल्लेखनीय है कि एनएसईएल का भुगतान संकट जुलाई 2013 में पैदा हुआ था।

63 मून्स ने चिदंबरम, रमेश अभिषेक और कृष्णन के खिलाफ सीबीआई में आपराधिक शिकायत भी दर्ज की है।

कंपनी के चेयरमैन वेंकट चारी ने पिछले फरवरी में दिल्ली में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस भरी और कहा कि कंपनी हर्जाने के रूप में 10,000 करोड़ रुपये दिलवाने के लिए मुकदमा करेगी। उन्होंने आगे कहा कि इस तिकडी ने एनएसईएल के भुगतान संकट से पैदा हुई स्थिती को अधिक बिगाड़ने में सक्रिय भूमिका निभाई है। इसके परिणामस्वरूप, कंपनी के शेयरधारकों भारी नुकसान उठाना पड़ा। साथ ही ग्रुप द्वारा किये जा रहे रोजगारसर्जन में रुकावट आ गई और अर्थव्यवस्था को मिलने वाली महसूली आय भी बंद हो गई। अगर एनएसईएल के खिलाफ कोई साजिश नहीं हुई होती, तो एफटीआयएल ग्रुप का मूल्य 50,000 करोड रुपये से 60,000 करोड़ रुपये तक होता।

इसी प्रेस कॉन्फ्रेंस में, समूह के संस्थापक जिग्नेश शाह ने कहा था, ”मैं इन तीनों के साथ सार्वजनिक चर्चा करने को तैयार हूँ। चाहे तो वे एक साथ आये या एक-एक करके आये। एनएसईएल संकट का भुगतान संकट वास्तव में एक साजिश के तहत था। कुछ बिखरे मुद्दों को इकट्ठा करके संकट को एक घोटाले के रूप में चित्रित किया गया था।”

ऐसा प्रतीत होता है कि एनएसईएल भुगतान संकट को तर्क के आधार पर निपटाया नहीं गया है। सरकार द्वारा नियुक्त विशेष धोखाधड़ी जांच कार्यालय (एसएफआयओ) की रिपोर्ट में कई चौंकाने वाले विवरणों के बावजूद दलालों, डिफॉल्टरों और व्यापारियों के खिलाफ ठोस कार्रवाई नहीं हुई है। संकट के समय फॉरवर्ड मार्केट कमीशन (एफएमसी) के अध्यक्ष रमेश अभिषेक थे। हालाँकि उन्हें दलालों और व्यापारियों की भूमिका के बारे में पता था, उन्होंने एक पक्षपाती मानक अपनाया और केवल एनएसईएल और मूल कंपनी 63 मून्स टेक्नॉलॉजीज को दोषी ठहराने की चाल चली।

चिदंबरम, रमेश अभिषेक और कृष्णन इन तीनों ने कथित तौर पर एनएसई (नेशनल स्टॉक एक्सचेंज) को 63 मून्स द्वारा खड़ी हुई प्रतिस्पर्धा की चुनौती से बचाने के लिए एफटीआयएल को प्रताड़ित किया। इस बारे में अब सीबीआई जांच कर रही है। उस पर अब वित्तीय क्षेत्र की नज़र है।

इस मामले में बड़ी संख्या में लोगों को दिलचस्पी होना स्वाभाविक है, क्योंकि यह वित्तीय क्षेत्र के कई अन्य संकटों से अलग है। तीन वरिष्ठ सरकारी लोगों ने एक निजी कंपनी (एनएसई) के हितों की रक्षा के लिए साम-दाम-दंड-भेद की नीति अपनाकर देश में उद्यमिता की रीड़ की हड्डी तोड़ने की कोशिश की है।

यह वही पी. चिदंबरम हैं, जिन पर आईएनएक्स मीडिया मामले में भी आरोप लगाए गए हैं और दिल्ली की एक अदालत में उन पर मुकदमा चल रहा है। हैरानी की बात है कि उन्हें अपनी गिरफ्तारी के खिलाफ 26 बार अदालत से संरक्षण मिला है। उनके बेटे कार्ति भी इसी मामले में आरोपों का सामना कर रहे हैं और उन्हें भी गिरफ्तारी के खिलाफ 26 बार संरक्षण मिला है।

63 मून्स और आईएनएक्स मीडिया, दोनों मामलों से यह देखा जा सकता है कि चिदंबरम पर सरकारी प्रणाली का दुरुपयोग करने का आरोप है। जनता की सेवा करने का नाम लेकर आये हुए लोग सरकारी तंत्र का उपयोग निज़ी स्वार्थ के लिए करते है यह गंभीर चिंता का विषय है। कानूनी किताब में लिखा गया है कि न्याय में विलंब न्याय से वंचित रखने के बराबर कहलाता है। इससे भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिलता है और ईमानदार लोग निराश हो जाते है। यह मामला एक कार्पोरेट समूह नहीं है, बल्कि देश का है। इसीलिए, कानून का सख्त अमल करके जल्द से जल्द न्याय हो यह अपेक्षित है तथा देशहित में है।

——————–

भारत अगर सभ्य राष्ट्र है तो उसके डॉक्टरों पर हमले नहीं होने चाहिये।

”अच्छे बच्चों की तरह अपनी हड़ताल वापस लेने की आप से बिनती है।” पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बेनर्जी के इस अनुरोध के बाद रेसिडेंट डॉक्टरों ने हड़ताल समाप्त कर ली। मुख्यमंत्री ने डॉक्टरों की अनेक मांगों को मान भी लिया है। कोलकाता के सभी सरकारी अस्पतालों में अब तीन सप्ताह के भीतर सुरक्षाव्यवस्था कड़ी की जायेगी। साथ ही, अब हर मरीज़ के साथ अधिकतम दो लोग ही रह सकेंगे। अगर डॉक्टरों पर कोई हमला होता है तो एक बटन दबाने मात्र से स्थानिक पुलीस थाने में जानकारी पहुँच जायेगी और पुलीस को बुलाना आसान हो जायेगा।

एक हड़ताल भले ही समाप्त हो गई हो, वह देशवासियों के लिए एक सबक बने और अब कभी अस्पतालों में किसी डॉक्टर के साथ बदसलूकी की वारदातों को रोकने में सहायक हो ऐसी आशा रखते है।

जब कोई व्यक्ति या समुदाय किसी डॉक्टर पर हमला करता है तब वह सिर्फ एक डॉक्टर की पिटाई का मसला नहीं होता। ऐसी घटनाओं से कई मुद्दे सामने आते है और अंततः स्पष्ट होता है कि भारतीय समाज में अब भी कई सुधारों की आवश्यकता है। हमने देखा है कि लोग अपनी सेहत का ध्यान रखने में लापरवाही करते है और फिर डॉक्टरों के पास जादू की अपेक्षा रखते है। हफ्ते-हफ्ते तक घर में ही अपने आप दवाई लेते रहते है और फिर डॉक्टर के पास जाते है। इस तरह अपने आप ही स्थिती गंभीर करने के पश्चात डॉक्टर तक पहुँचते है। घर में ही इलाज में विलंब होने के कारण मरीज़ गंभीर स्थिती में होता है। ऐसी अवस्था में अगर अस्पताल में दाखिल करने के बाद थोडे ही समय में मरीज़ की मृत्यु हो जाये तो उनके परिजन डॉक्टरों पर लापरवाही का आरोप लगाते है। ऐसा भी देखा गया है कि कई बार परिजनों को मरीज़ की बीमारी के बारे में भी जानकारी नहीं होती। इसी नासमझी का शिकार होकर वे डॉक्टरो पर टूट पड़ते है और दूसरें मरीजों का भी नुकसान करते है।

सरकारी अस्पतालों में एक डॉक्टर को अधिक संख्या में मरीज़ों का इलाज करना पड़ता है। पिट जाने के कारण वे डॉक्टर स्वयं मरीज़ बन जाते है और दूसरें मरीज़ों का इलाज करने की स्थिती में नहीं रहते। इस तरह उन मरीज़ों का नुकसान हो जाता है। अगर हमलावरों ने अस्पताल के उपकरणों को नुकसान कर दिया हो तो मरीज़ों का इलाज हो नहीं पाता। इस तरह अस्पताल में होने वाले हमलों के कारण अनेक रूप में नुकसान झेलना पड़ता है।

डॉक्टर जब हड़ताल करता है तब लोग दूसरें मरीज़ों का इलाज नहीं होने का मुद्दा उपस्थित करते है, लेकिन जब किसी डॉक्टर पर हमला हो रहा हो तब उस के खिलाफ़ आवाज क्यों नहीं उठाते। डॉक्टर भी आखिर इंसान होते है। उन्हें भी अपनी सुरक्षा के लिए सोचना पड़ता है। क्या आप को लगता है कि अगर डॉक्टर इतने दिन हड़ताल नहीं करते और इस बात पर इतना बवाल नहीं मचता तो क्या ममता बेनर्जी अच्छी मुख्यमंत्री की तरह उनसे मंत्रणा करके आंदोलन समाप्त करने की बिनती करती?

दरअसल डॉक्टर राष्ट्र की संपत्ति होते है। भारत अगर सभ्य राष्ट्र है तो उसके डॉक्टरों पर हमले नहीं होने चाहिये।

———————-

डॉक्टरों पर हमले पूर्णतः गैरकानूनी और अनुचित

बात अगर एक दिन की होती, एक राज्य की होती तो शायद हम आज यहाँ उसका उल्लेख न करते, लेकिन ऐसा नहीं है। यह घटनाएँ आये दिन होती है और अनेक राज्यों में घट रही है। जी हाँ, हम बात कर रहे है डॉक्टरों पर हो रहे हमलों की।

पिछले सप्ताह पश्चिम बंगाल के कोलकाता की एनआरएस मेडिकल कॉलेज एंड हॉस्पिटल में दो जूनियर डॉक्टरों पर हुए हमले के बाद समग्र देश में आंदोलन चल रहा है। जैसा कि हमने बताया, अगर बात एक रोज की या कोई छिटपुट घटना की होती तो शायद हम उसकी चर्चा नहीं कर रहे होते। कुछ लोग डॉक्टरों के आंदोलन को राजनीति और धर्म के साथ जोड़ने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन ऐसा करके वे मुख्य मुद्दे से दूर जा रहे है और समस्या को बदतर स्वरूप दे रहे हैं। हमने विचारक्रांति में इस विषय पर आप से बात करनी चाही क्यों कि राजनीति और धर्म से परे ही बात करनी आवश्यक है।

भारत में डॉक्टरों पर अस्पतालों में हमले होते है। सर्वाधिक हमले इमरजेंसी विभाग में ही होते है। अस्पताल में आए हरेक मरीज़ का इलाज कर के उसे स्वस्थ करना और मरते हुए रोगी को बचाना यह कर्तव्य डॉक्टर बजाते है और फिर भी उन्हें ही मरीज़ की मौत का जिम्मेदार ठहराकर उनके साथ बदसलूकी की जाती है, यह सोचनीय बात है।

आंकडे दर्शाते है कि अब तक सब से अधिक हल्ले दिल्ली, महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश में हुए है। इस कारण से भी कोलकाता के एक केस को हम यहाँ इतना महत्त्व नहीं दे रहे और इसीलिए उस के साथ राजनीति तथा धर्म को जोड़ने का जो प्रयास है उस में जरा भी दिलचस्पी नहीं है।

सब से पहले प्राथमिक मुद्दा लेते है। अगर इलाज में कोई लापरवाही हुई हो तो भी कानून को अपने हाथ में लेना अनुचित है। अपने देश में मेडिको-लीगल केस लड़े जाते है और वह ही उचित रास्ता है। इमरजेंसी वॉर्ड में दाखिल किये गये मरीज़ को किस इलाज की आवश्यकता है यह जिस तरह हम-आप जैसे सामान्य नागरिक तय नहीं कर सकते, ठीक उसी तरह किये गये इलाज का नतीजा क्या होगा वह डॉक्टर तय नहीं कर सकते। उनका काम उस समय मेडिकल शास्त्र के अंतर्गत जो आवश्यक है वह चिकित्सा करना है। अगर परिणाम उनके हाथ में होता तो किसी मनुष्य की अस्पताल में मृत्यु ही न होती।

कानून को अपने हाथ में न लेना और चिकित्सा का परिणाम डॉक्टरों के हाथ में नहीं है इन दो मुद्दों को भी अगर स्वीकार कर लिया जाये तो डॉक्टरों पर हो रहे हमले गैरकानूनी और अनुचित बन जाते है। बाकी सारी बातें बाद में आती है।

इसी लिए जो लोग राजनैतिक तथा धार्मिक मुद्दे के साथ उसे जोड़ने की कोशिश करते है वे मसले को ज्यादा गंभीर बना देते है।

इस विषय पर हम हमारी बातें आगे जारी रखेंगे। हमें इस के अनेक पहलूओं की यहाँ चर्चा करनी है। कृपया हमारे साथ बनें रहें।

—————-

एनएसई को-लोकेशन घोटालाः सेबी ने गहराई से जांच ही नहीं की

सिक्यॉरिटीज मार्केट में सालों से काम कर रहे लोग भी जिसे गलत बता रहे है, उस एनएसई को-लोकेशन मामले में सिक्यॉरिटीज मार्केट की विनियामक संस्था सेबी ने नरम रवैया अपनाया है। सेबी ने की हुई कारवाई सिर्फ़ दिखावा बनकर रह गई है। यह ही कारण है कि जब अभियुक्तों ने उस के खिलाफ अपीलीय बॉडी सॅट में अपील दायर की तब उन सभी को राहत दी गई है।  

कई अखबारों ने सेबी के इस रवैयी की आलोचना की है। उनका कहना है कि को-लोकेशन दरअसल धोखाधड़ी का केस है और उस में धोखाधड़ी के पहलू को ध्यान में रखकर उचित जांच होनी चाहिए, लेकिन सेबी ने उसे ‘आचारसंहिता का भंग’ कहकर उसकी गंभीरता कम कर दी है।

प्रतिभूति और अपीलीय न्यायाधिकरण (सिक्यॉरिटीज एपलेट ट्रिब्युनल – सॅट) ने कुछ ब्रोकर सहित 12 प्रमुख अभियुक्तों के खिलाफ सेबी द्वारा उठाये गये कदम के सामने अंतरिम स्थगन देने का निर्णय लिया है। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि जांच में कमी रखी गई है।

अहम सवाल यह है कि सेबी ने एनएसई के इस मामले में मिलीभगत और धोखाधड़ी के पहलूओं की कोई जांच क्यों नहीं की। को-लोकेशन का मामला एनएसई की व्यापार प्रणालियों में की गई ‘सोची समझी प्रक्रियात्मक चूक’ के माध्यम से बाजार में हुई धांधली की ओर इशारा करता है। लेकिन सेबी ने इसे महज ‘आचार संहिता के उल्लंघन’ के रूप में देखा है। सेबी ने एनएसई को आदेश दिया था कि उसे 1,000 करोड़ रूपये जमा कराने होंगे। यह आदेश एनएसई में हुई धांधली की तुलना में बहुत ही कम है। एक अंदाज के अनुसार को-लोकेशन में कुछ चुनिंदा ब्रोकरों को 50,000 से 60,000 करोड रूपयों का फायदा कराया गया था। को-लोकेशन के लिए शुल्क तो सभी ने दिया था लेकिन कुछ ब्रोकरों को दूसरों की तुलना में अधिक लाभ कराया गया।

को-लोकेशन मामले में NSE और उसके अधिकारियों के खिलाफ धोखाधड़ी और अनुचित व्यापार व्यवहार के गंभीर आरोप को ध्यान में रखकर कारवाई करने की आवश्यकता थी लेकिन विनियामक ने उस आरोप को ही लागू नहीं किया। अपने आदेश में, सेबी ने कहा, “इस परिदृश्य में, एक्सचेंज के खिलाफ़ धोखाधड़ी का आरोप लगाने का मतलब यह होगा की उस ने जान-बूझ़कर सब किया, लेकिन उस आरोप का कोई सबूत नहीं है।”

सेबी को इस केस में छानबीन करके यह देखना चाहिये था कि कहा घोटाला हुआ है, लेकिन उसने उलटा यह कह दिया की प्रक्रियात्मक चूक कोई धोखाधड़ी नहीं थी।

पिछले घोटाले

इतिहास से पता चलता है कि सभी बाजार घोटालों की शूरूआत ‘प्रक्रियात्मक चूक’ से ही होती है। उदाहरण के लिए, हर्षद मेहता और केतन पारेख के घोटालों में बैंकिंग प्रणाली की एक प्रक्रियात्मक चूक जिम्मेदार थी। लेकिन प्रारंभिक जांच के बाद जब आपराधिक जांच हुई तब बड़ा घोटाला सामने आया।

सेबी ने पूरी जांच किये बिना ही यह कह दिया कि को-लोकेशन मामले में कोई घोटाला नहीं हुआ। गौरतलब है कि एनएसई के खिलाफ फोरेंसिक ऑडिटर्स को केवल प्रणालीगत चूक की जांच करने को ही कहा गया था; धोखाधड़ी का पता लगाने पर जोर कभी नहीं था। जब घोखाधड़ी की जांच ही नहीं हुई तब सेबी यह कैसे तय कर सकता है कि कोई धोखाधड़ी ही नहीं हुई? साथ ही, फोरेंसिक ऑडिटर और एनएसई के बीच हितों का टकराव था यह शिकायतें भी सामने आई हैं। क्या को-लोकेशन इश्यू सिर्फ़ आचारसंहिता का उल्लंघन था?

वर्षों पहले, SEBI ने पिरामिड साईमिरा के जनसंपर्क अधिकारियों से जुड़े एक पत्र की जालसाजी के बारे में एक आपराधिक शिकायत दर्ज की थी। उस मामले में, मूल्य की धांधली हुई है ऐसा साबित करने के लिए पुलिस सहायता ली गई थी। एक को दूसरे से अधिक सुविधा देकर लाभ करवाने के इस मामले में यह रवैया क्यों नहीं अपनाया गया?

सेबी की तकनीकी सलाहकार समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि एनएसई आर्किटेक्चर में हेरफेर, बाजार का दुरुपयोग, और कुछ ट्रेडिंग सदस्यों को दूसरों के मुकाबले लाभ करवाया गया। एनएसई के आर्किटेक्चर का दुरुपयोग हो रहा है ऐसी शिकायतों की ओर एनएसई ने ध्यान नहीं दिया और सेबी ने भी इन तथ्यों की अनदेखी की है।

(एनएसई को-लोकेशन घोटाले के बारे में अधिक जानकारी के लिए पढियें: https://navbharattimes.indiatimes.com/business/business-news/co-location-scam-jigsaw-and-how-sebi-cracked-the-code/articleshow/69128158.cms

https://money.bhaskar.com/news/MON-MARK-STMF-what-is-the-co-location-case-how-thousands-of-orders-were-held-in-the-stock-market-within-1-second-1556703500.html)

—————————————————-